कलम की ज़ुबानी
मैं आज फिर से गाता हूँ
आम-आदमी की दुःख भरी कहानी
मैं खुद को समझता था शेर
पर वक़्त ने पलटी मारी
और हुआ मैं ढेर
स्कूल में मास्टर जी के डंडे ने
पढाया मुझे पाठ
और बाबू जी की पिटाई ने
खड़ी कर दी मेरी खाट
फिर आया वक़्त नौकरी का
और रोज़मर्रा की मारा मारी ने
फिर एक बार कर दिया मुझे टेम
बचा था बस एक घर मेरा जहां था मैं शेर
वहाँ भी ले आया मैं एक मेम
फिर बच्चों की चिक चिक में मैंने गवायाँ अपना अस्तित्व
मेहेंगाई की मार में डिप्रेशन बना मेरा परम मित्र
अपने गुसलखाने की चार दीवारी में मैं अब दहाड़ता हूँ
बहते नल की आवाज़ में मैं ऊंची डींगे बघारता हूँ।