Saturday, November 3, 2012

आम आदमी की कहानी


कलम की ज़ुबानी
मैं आज फिर से गाता हूँ
आम-आदमी की दुःख भरी कहानी
मैं खुद को समझता था शेर
पर वक़्त ने पलटी  मारी
और हुआ मैं ढेर
स्कूल में मास्टर जी के डंडे ने
पढाया मुझे पाठ
और बाबू जी की पिटाई ने
खड़ी  कर दी मेरी खाट
फिर आया वक़्त नौकरी का
और रोज़मर्रा की मारा मारी ने
फिर एक बार कर दिया मुझे टेम
बचा था बस एक घर मेरा जहां था मैं शेर
 वहाँ भी ले आया मैं एक मेम
फिर बच्चों की चिक चिक में मैंने गवायाँ अपना अस्तित्व
मेहेंगाई की मार में डिप्रेशन बना मेरा परम मित्र
अपने गुसलखाने की चार दीवारी में मैं अब दहाड़ता हूँ
बहते नल की आवाज़ में मैं ऊंची डींगे बघारता हूँ।

Thursday, September 6, 2012

आड़ू आदमी

आदमी आड़ू कब होता है
जब वो दिन में सोता है
और रात में रोता है
SURF  डालकर bathtub में नहाता है 
और cinthol से कपडे धोता है
बाल्टी में मुह  डालकर आवाज़ गुंजाता है
और गहरी वादियों में चुप हो जाता है
पैरों की  धुल से चादर सानता है
और नहाकर ज़मीन पर लोट जाता है
अच्छे खासे खाने को छोड़ 
जब वह  ख़ुशी ख़ुशी  उड़द की दाल चबाता है
आदमी तब पूरा आड़ू कहलाता है.. 

Wednesday, March 7, 2012

टूटा घुटना

टूटे घुटने पर ही मारते हैं सब
आखिर सहूँ मैं ये कब तक?
कुछ बोलने के लिए मुझे नहीं मिलते हैं अपशब्द
क्यों टूटे घुटने पर ही मारते हैं सब

मैं पूछता हूँ क्या इन ज़ख्मों ने तुम्हे कुछ नहीं सिखाया
इन भिड़ती झुर्रियों ने नहीं तुम्हे कुछ बताया
इस पर ज़ख्म देने वाले भी रह जाते हैं निस्तब्ध
क्यों टूटे घुटने पर ही मारते हैं सब

अगर मारना ही था तोह एक लाठी भी दे जाते
'गर खुद को सँभालने के लिए सहारा ही बन जाते
तो इशारे पर खुदा के हम भी सह जाते हर दर्द
क्यों टूटे घुटने पर ही मारते हैं सब.